सोमवार, 25 अप्रैल 2011

क्यों नहीं रुकता भ्रष्टाचार


वे दिन भी अभी बहुतों को याद होंगे जब लोग रिश्वत  का नाम लेते हुए डरते थे, इस तरह का कोई लेनदेन अगर कभी होता भी था तो एकदम चोरी छुपे लेकिन आजकल तो सौदे सरेआम होते हैं या यूं कहिये कि बिना सौदों के कोई काम ही नहीं होता। क्या कभी किसी ने सोचा है कि स्वराज्य के कुछ ही दिनों में हम कहाँ से कहाँ चले आये? अभी और कितना नीचे गिरना बाकी है? देश  की जनता कब तक इसी तरह मूक दर्शक बन कर भ्रष्टाचार की चक्की में पिसती रहेगी? इस दुर्दशा  के लिये कौन उत्तरदायी है? हम स्वयं, हमारी व्यवस्था या फिर कोई और? ऐसे ही ढेर सारे सवालों के बीच एक सवाल यह भी कि हमारा समाज भ्रष्टाचार की परिभाषा आज किस तरह करता है? क्या केवल रिश्वत के लेनदेन को ही भ्रष्टाचार समझा जाये? मानव जीवन के और भी पक्ष हैं और वहाँ भी भ्रष्ट आचरण के अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं, तो क्या उन्हें भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिये? जब धर्म के ठेकेदार  अपने स्वाभाविक दायित्वों से हट कर राजनीति की दासता में लिप्त होने लगते हंै तो उनके इस आचरण को भ्रष्टाचार क्यों नहीं कहा जाता? जब क्षेत्रीयता, जाति और भाषाओं के नाम पर समाज और राष्ट्र की एकरसता में व्यवधान उत्पन्न करने के प्रयास होते हैं तो उन्हें भ्रष्टाचार की संज्ञा क्यों नहीं दी जाती? जब पश्चिम की अन्धभक्ति में आकंठ लीन होकर मैकाले के मानस पुत्र अपनी ही संस्कृति पर निरंतर कुठाराघात करते हैं तो उन्हें भ्रष्ट कहने में संकोच क्यों किया जाता है? जब बाहुबल, धनबल या सत्ताबल से हावी हुए अपने ही बीच के कुछ स्वनामधन्य पूरी बेहयाई और कुटिलता से अनैतिक जीवनमूल्यों की वकालत करते हुए इनको स्वीकृति प्रदान करने की कुत्सित चालें चलते हैं तो उनके इस भ्रष्ट व्यवहार की ओर कोई उँगली क्यों नहीं उठती? ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार के इस विस्तार की ओर से अभी हम सब बेखबर बैठे हैं जबकि आजकल जिस भ्रष्टाचार का रोना अधिकांश रोया जाता है उसकी जड़ों को खाद, पानी तो वास्तव में इस धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार से ही मिलता है।
 हम में से अधिकांश   के बीच किसी न किसी कारण से दिन में एक दो बार तो भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भी चर्चा अवश्य  हो जाती है, लेकिन जब होती है केवल चर्चा होती है, विषय  की गम्भीरता को समझते हुए भी इस मामले में कोई गम्भीर कदम उठाने से हम अक्सर परहेज कर जाते हैं। आगे भी अगर इसी तरह चलता रहा तो इस महामारी पर लगाम कैसे लगेगी? नैतिक मूल्यों में गिरावट की स्वीकारोक्ति अब नामी गिरामी राजनीतिक दलों के नेता भी जनता के सामने खुल कर करने लगे हैं, परोक्ष रूप में तो यह बढ़ते भ्रष्टाचार की ही स्वीकारोक्ति है, बावजूद इसके यह बात और है कि इसकी जिम्मेदारी लेने से सभी बचना चाहते हैं। ऐसी संभावना तो नहीं दिखती कि हमारे मतलबी राजनेता अथवा आत्ममुग्ध नौकरशाह भ्रष्टाचार रोकने की दिशा में कभी कोई कारगर कदम उठायेंगे। भ्रष्टाचार के जन्मदाताओं से भ्रष्टाचार पर  अंकुश लगाये जाने की अपेक्षा करना तो किसी के लिये भी दिवास्वप्न जैसा ही होगा।
रोजमर्रा के छोटे-मोटे अनैतिक आचार-व्यवहार की बात यदि छोड़ भी दें तब भी स्वतंत्र भारत के पिछले छह दशकों  के इतिहास में सैकड़ो की संख्या में बड़े-बड़े घोटाले समय-समय पर सामने आते रहे हैं लेकिन किसी भी मामले में ऐसी कोई मिसाल आज तक शायद  ही सामने आई हो जब किसी भ्रष्ट  राजनेता या प्रशासनिक अधिकारी को इस तरह के किसी मामले में कभी दंडित किया जा सका हो। आगे भी ऐसे किसी अपराध के लिये तथाकथित किसी बड़े को कोई दंड दिया जा सकेगा इस बात की सम्भावना कम ही नजर आती है क्यों कि दंड देने का अधिकार हमारे यहाँ केवल कानून के पास है और दुर्भाग्य से जो कानून अब तक लागू हैं उनमें से कुछ तो गुलामी के दिनों के कानूनों की नकल हैं और कुछ को उनके पुराने रूप-स्वरूप में ही यथावत स्वीकार कर लिया गया है। कहने की आवश्यकता नहीं कि गुलाम हिन्दुस्तान में ऐसे कानून तत्कालीन राजशाही और नौकरशाही  को मजबूत करने और उन्हें मनमानी की खुली छूट देने के लिये ही बनाये गये थे, इतिहास गवाह है कि उस दौर में इन कानूनों का उपयोग राजा के भ्रष्टाचार को कानूनी जामा पहनाने और गुलाम जनता को कुचलने के लिये ही हुआ भी, फिर आज उसी तर्ज पर बने कानूनों से पारदर्शी  और असरदार फैसलों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है वह भी तब, जब ऐसे लचर कानूनों को लागू करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं लोगों के पास है जो इनका दुरुपयोग अपने पक्ष में खुलकर करने में सिद्धहस्त हैं। ऐसे मामलों में राजनीतिक इच्छाशक्ति  का अभाव भी साफ दिखाई देता है। इस सबके बावजूद  कानून अगर अपना काम करना भी चाहे तो दूसरी तमाम अड़चनें उसका रास्ता रोकने को तैयार मिलती हैं, खासकर जब सवाल साक्ष्य उपलब्ध कराने का होता है तो कानून एक तरह से अस्तित्वहीन सा हो जाता है। भ्रष्टाचार के मामलों में अव्वल तो गवाह सबूत मिलते ही नहीं और अगर कहीं मिल भी जाये ंतो वे कानूनी दावपेच की कसौटी पर खरे नहीं उतर पाते, ऐसे में उनका होना न होना एक बराबर। इन सारी खामियों का लाभ भ्रष्टाचारी के पक्ष में जाता है और वह निरंतर सशक्त होता जाता है। इस बारे में हमारी न्यायपालिका को भी पुनर्विचार करना चाहिये कि क्या वर्तमान कानून व्यवस्था भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने में पूरी तरह सक्षम है या इसके विपरीत उसे संरक्षण देकर और अधिक प्रवाह और प्रेरणा देने वाली है। क्या इस दिशा में कुछ सुधार अपेक्षित हैं? यदि हाँ, तो ऐसे सुधार अविलम्ब लागू किये जायें। कानून की कमजोरी का फायदा उठाकर भ्रष्टाचारी छूटते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हर तरफ इनकी फौज खड़ी दिखाई देगी और तब तक हालात इस कदर बेकाबू हो चुके होगे कि सुधार की संभावना शून्य बराबर रह जायेगी। 
भ्रष्टाचार  धीरे-धीरे हमारी जीवनचर्या का अनिवार्य अंग बनता जा रहा है। सोने-जागने, खाने-पीने जैसी दैनिक क्रियाओं की भांति ही हमने भ्रष्टाचार को भी अपने लिये स्वाभाविक मान लिया है। यह देख कर आश्चर्य होता है कि किस तरह कुछ मुट्ठीभर लोग पूरी बेहयाई से अपार जनसमूह का शोषण कर रहे हैं। झूठ, चोरी, बेईमानी और रिश्वतखोरी के असीमित अधिकार जिन व्यक्तियों के पास हैं उनकी संख्या यद्यपि अभी सीमित है फिर भी इनकी व्यभिचारी वृत्ति असंख्य भोलेभाले लोगों को पथभ्रष्ट  होने पर विवश  कर रही है। यह बात भी चैंकाने वाली है कि भ्रष्टाचार में वही अधिकता से लिप्त हैं जिनके पेट भरे हैं, कोई भूख का मारा भ्रष्ट  हो जाय तो उसकी विवशता समझ में आती है पर खाते-पीते बेईमान हो जाये ंतो फिर इसे दुर्भाग्य के सिवा और क्या कहा जाये? बहुतों का मानना है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे की ओर आया है, यह मान्यता ठीक भी हो सकती है लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोग नीचे से ही ऊपर जाते हैं, हम ही हैं जो उन्हें ऊपर का रास्ता दिखाते हैं, फिर हम स्वयं सुधरने-सुधारने  की बात क्यों नहीं सोचते?
वास्तव में कोई दूसरा किसी को नहीं सुधार सकता। कानून-व्यवस्था का भय दिखा कर लाया गया सुधार भी स्थायी नहीं होगा। केवल अंतरात्मा की आवाज से आया परिवर्तन ही स्थिर और दीर्घजीवी हो पायेगा, ऐसे में आत्म-संयम ही एकमात्र साधन समझ में आता है लेकिन आत्म-संयम के लिये अच्छे संस्कार आवश्यक हैं, जो पहले कभी परिवार, गुरुकुल और समाज से व्यक्ति तक पहुँचा करते थे, दुर्भाग्य से संस्कारों के ये जीवंत श्रोत अब सूख चुके हैं। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की आर्ष संस्कृति से अलग होकर हम पश्चिम की ‘खाओ, पीओ, मौज करो’ वाली भूल-भुलैया में भटकने लगे हैं। कहने को हम वैश्विक अर्थ व्यवस्था के अंग बन रहे हैं पर यथार्थ में हमारी सोच नितान्त व्यक्तिपरक होती जा रही है। अपने अतिरिक्त किसी और के बारे में हम सोचना नहीं चाहते, हमें केवल अपने लिये सब कुछ चाहिये, दूसरों की चिन्ता हम क्यों करे? एक यही सोच हमें भ्रष्टाचार का दास बनाने के लिये पर्याप्त है। वह दिन दोबारा कब लौटेंगे जब अपने साथ-साथ हम अपने समाज, अपने देश, अपनी धरती के बारे में एक बार फिर से सोचना सीखेंगे? ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की अवधारणा को हम कब सच्चे मन से आत्मसात् कर पायेंगे? सम्भवतः यही वह दिन होगा जब भय और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की परिकल्पना एकबार फिर से साकार होगी।
मदन मोहन 'अरविन्द'
सी-69, श्रीबालाजी पुरम्, मथुरा


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