नयी रंगत नजर आने लगी है
बहारों क़ी खबर आने लगी है.
जहाँ से पांव फिसले हैं हजारों
वही मुश्किल डगर आने लगी है.
सवेरा दो घडी निकला नहीं है
सुना है दोपहर आने लगी है.
हुआ क्या है समझ को क्या बताएं
हंसी ह़र बात पर आने लगी है.
न जाने कौन से सपने दिखाए
खुमारी लौट कर आने लगी है.
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
शनिवार, 28 अगस्त 2010
चाँद की रात मिलेंगे हम-तुम
हों न हालात मिलेंगे हम-तुम
बात-बेबात मिलेंगे हम-तुम
एक सा खून रगों में अपनी
एक है जात मिलेंगे हम-तुम
बेरुखी छोड़ चलें शहरों में
गाँव-देहात मिलेंगे हम-तुम
फिर किसी मोड़ किसी मंजिल पर
है मुलाकात मिलेंगे हम-तुम
खो न जाना डगर अँधेरी है
चाँद की रात मिलेंगे हम-तुम
बात-बेबात मिलेंगे हम-तुम
एक सा खून रगों में अपनी
एक है जात मिलेंगे हम-तुम
बेरुखी छोड़ चलें शहरों में
गाँव-देहात मिलेंगे हम-तुम
फिर किसी मोड़ किसी मंजिल पर
है मुलाकात मिलेंगे हम-तुम
खो न जाना डगर अँधेरी है
चाँद की रात मिलेंगे हम-तुम
शनिवार, 14 अगस्त 2010
तोड़ दे माखन मटकी
पीजा जो कडवा मिले जा मीठे को भूल
आज कोक के सामने लस्सी चाटे धूल.
लस्सी चाटे धूल सैर कर काफी हट की
बर्गर से दिल लगा तोड़ दे माखन मटकी.
शब्द आधुनिक सीख देख फिर नया नतीजा
है खाने की चीज़ मिलेगी कह कर पीजा.
आज कोक के सामने लस्सी चाटे धूल.
लस्सी चाटे धूल सैर कर काफी हट की
बर्गर से दिल लगा तोड़ दे माखन मटकी.
शब्द आधुनिक सीख देख फिर नया नतीजा
है खाने की चीज़ मिलेगी कह कर पीजा.
शुक्रवार, 6 अगस्त 2010
खुले घूमते बाज
है कैसा अंधेर ये, कैसा जंगल राज.
पंछी थर-थर कांपते, खुले घूमते बाज.
खुले घूमते बाज जहाँ तक नजर पड़ी है.
सोने की चिड़िया पर इनकी आंख गडी है.
झपट चोंच में भर लेने को कमर कसी है.
चिड़िया है अनजान बात बस इतनी सी है.
पंछी थर-थर कांपते, खुले घूमते बाज.
खुले घूमते बाज जहाँ तक नजर पड़ी है.
सोने की चिड़िया पर इनकी आंख गडी है.
झपट चोंच में भर लेने को कमर कसी है.
चिड़िया है अनजान बात बस इतनी सी है.
रविवार, 1 अगस्त 2010
अंधी पीसे कुत्ते खायं
बेखटके चौके तक जायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
इनसे भूखी आदम जात
सोलह आने सच्ची बात
कितने पढ़े ज्ञान विज्ञान
मैल न धो पाया इन्सान
ये साबुन से रोज नहायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
दिल्ली रह लें या भोपाल
वही समझ वैसा ही हाल
फिरते गज भर जीभ निकाल
जैसे ही पा जाएँ माल
लड़ें-भिड़ें भोंकें गुर्रायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
इनकी आदत पर दे ध्यान
जीवन के सच को पहचान
मेहनत के दिन बीते यार
तू भी छीन झपट्टा मार
चोर उचक्के मौज मनायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
झूठ कहें कहलायं महान
सच्चे की सांसत में जान
कहीं सिसकती सूनी शाम
हंस कर कहीं छलकते जाम
लुच्चे मोहन भोग चबायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
रखवाली था जिनका काम
लालच के सब हुए गुलाम
कैसा उल्टा चला जहान
भीतर राज कर रहे श्वान
बाहर शेर खड़े ललचायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
इनसे भूखी आदम जात
सोलह आने सच्ची बात
कितने पढ़े ज्ञान विज्ञान
मैल न धो पाया इन्सान
ये साबुन से रोज नहायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
दिल्ली रह लें या भोपाल
वही समझ वैसा ही हाल
फिरते गज भर जीभ निकाल
जैसे ही पा जाएँ माल
लड़ें-भिड़ें भोंकें गुर्रायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
इनकी आदत पर दे ध्यान
जीवन के सच को पहचान
मेहनत के दिन बीते यार
तू भी छीन झपट्टा मार
चोर उचक्के मौज मनायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
झूठ कहें कहलायं महान
सच्चे की सांसत में जान
कहीं सिसकती सूनी शाम
हंस कर कहीं छलकते जाम
लुच्चे मोहन भोग चबायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
रखवाली था जिनका काम
लालच के सब हुए गुलाम
कैसा उल्टा चला जहान
भीतर राज कर रहे श्वान
बाहर शेर खड़े ललचायं
अंधी पीसे कुत्ते खायं.
मंगलवार, 20 जुलाई 2010
कल ऐसी बरसात नहीं थी
झूले भी थे आंगन भी था तूफानों की बात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
भीगे आँचल में सिमटी सी बदली घर-घर घूम रही थी
आसमान के झुके बदन को छू कर बिजली झूम रही थी
घुटी हवाएं उमस भरे दिन और अँधेरी रात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
बौछारों के बीच नहा कर निखर उठा था जैसे जीवन
कागज की नावों पर चढ़ कर चहक रहा था भोला बचपन
खिलते फूलों की झोली में काँटों की सौगात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
घिर आयी थीं नयी घटायें सांसों में उतरी थी सिहरन
गीली मिटटी महक रही थी खुशबू में खोया था तनमन
गोरी बाँहों में गजरे थे कीचड़ सनी परात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
इकलौते चिराग की टिमटिम मौसम का रुख भांप रही थी
सर्द हवाओं के झोके से कभी-कभी लौ कांप रही थी
बुझती हुई शमा के घर परवानों की बारात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
भीगे आँचल में सिमटी सी बदली घर-घर घूम रही थी
आसमान के झुके बदन को छू कर बिजली झूम रही थी
घुटी हवाएं उमस भरे दिन और अँधेरी रात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
बौछारों के बीच नहा कर निखर उठा था जैसे जीवन
कागज की नावों पर चढ़ कर चहक रहा था भोला बचपन
खिलते फूलों की झोली में काँटों की सौगात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
घिर आयी थीं नयी घटायें सांसों में उतरी थी सिहरन
गीली मिटटी महक रही थी खुशबू में खोया था तनमन
गोरी बाँहों में गजरे थे कीचड़ सनी परात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
इकलौते चिराग की टिमटिम मौसम का रुख भांप रही थी
सर्द हवाओं के झोके से कभी-कभी लौ कांप रही थी
बुझती हुई शमा के घर परवानों की बारात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
शनिवार, 10 जुलाई 2010
सामना हो सलाम हो जाये।
दोपहर हो कि शाम हो जाये
सामना हो सलाम हो जाये।
और कर इंतजार साहब का
क्या पता आज काम हो जाये।
वक्त की बात है न जाने कब
कौन किसका गुलाम हो जाये।
सब्र की यूँ न आजमाइश कर
जिंदगी बेलगाम हो जाये।
नाम चलता रहे ज़माने में
उम्र चाहे तमाम हो जाये।
सामना हो सलाम हो जाये।
और कर इंतजार साहब का
क्या पता आज काम हो जाये।
वक्त की बात है न जाने कब
कौन किसका गुलाम हो जाये।
सब्र की यूँ न आजमाइश कर
जिंदगी बेलगाम हो जाये।
नाम चलता रहे ज़माने में
उम्र चाहे तमाम हो जाये।
बुधवार, 7 जुलाई 2010
यूँ न अब दिल उछाल.....
यूँ न अब दिल उछाल कर चलना
जब चलो देख-भाल कर चलना।
आजकल मुफ्त कुछ नहीं मिलता
माल मुट्ठी में डाल कर चलना।
दोगले मोड़ पर नहीं आना
राह सीधी निकाल कर चलना।
जिंदगी और पास आएगी
मौत का साथ टाल कर चलना।
लोग उलटे जवाब देते हैं
कर सको तो सवाल कर चलना.
जब चलो देख-भाल कर चलना।
आजकल मुफ्त कुछ नहीं मिलता
माल मुट्ठी में डाल कर चलना।
दोगले मोड़ पर नहीं आना
राह सीधी निकाल कर चलना।
जिंदगी और पास आएगी
मौत का साथ टाल कर चलना।
लोग उलटे जवाब देते हैं
कर सको तो सवाल कर चलना.
सोमवार, 5 जुलाई 2010
मेरी रातें उनके सपने
रोज खुले में टकराते हैं मेरी रातें उनके सपने
अक्सर घायल हो जाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
बेखटके चलती रहती हैं बेहूदा बेढंगी बातें
चुप रहने से कतराते हैं मेरी रातें उनके सपने।
शिकवे हैं उलझन हैं ग़म हैं लेकिन कैसी मज़बूरी है
रिश्ते तोड़ नहीं पाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
सूनी राह भटक जाता हूँ इनका पीछा करते-करते
मुझको पागल बतलाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
अपनी ही सूरत से खुद को मैं पहचान नहीं पाता हूँ
आईना जब ले आते हैं मेरी रातें उनके सपने.
अक्सर घायल हो जाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
बेखटके चलती रहती हैं बेहूदा बेढंगी बातें
चुप रहने से कतराते हैं मेरी रातें उनके सपने।
शिकवे हैं उलझन हैं ग़म हैं लेकिन कैसी मज़बूरी है
रिश्ते तोड़ नहीं पाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
सूनी राह भटक जाता हूँ इनका पीछा करते-करते
मुझको पागल बतलाते हैं मेरी रातें उनके सपने।
अपनी ही सूरत से खुद को मैं पहचान नहीं पाता हूँ
आईना जब ले आते हैं मेरी रातें उनके सपने.
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
आंख का पानी
आदमी को तोलता है आंख का पानी
गांठ मन की खोलता है आंख का पानी।
ये किसी भी हाल में नीचे नहीं आता
आसमान टटोलता है आंख का पानी।
सीप में बिखरे पड़े हों जिस तरह मोती
पुतलियों में डोलता है आंख का पानी।
झील को सागर बना दे इसलिए उसमें
कुछ नमक सा घोलता है आंख का पानी।
मुद्दतों का मौन हिम्मत हार जाता है
बिन कहे जब बोलता है आंख का पानी
गांठ मन की खोलता है आंख का पानी।
ये किसी भी हाल में नीचे नहीं आता
आसमान टटोलता है आंख का पानी।
सीप में बिखरे पड़े हों जिस तरह मोती
पुतलियों में डोलता है आंख का पानी।
झील को सागर बना दे इसलिए उसमें
कुछ नमक सा घोलता है आंख का पानी।
मुद्दतों का मौन हिम्मत हार जाता है
बिन कहे जब बोलता है आंख का पानी
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