झूले भी थे आंगन भी था तूफानों की बात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
भीगे आँचल में सिमटी सी बदली घर-घर घूम रही थी
आसमान के झुके बदन को छू कर बिजली झूम रही थी
घुटी हवाएं उमस भरे दिन और अँधेरी रात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
बौछारों के बीच नहा कर निखर उठा था जैसे जीवन
कागज की नावों पर चढ़ कर चहक रहा था भोला बचपन
खिलते फूलों की झोली में काँटों की सौगात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
घिर आयी थीं नयी घटायें सांसों में उतरी थी सिहरन
गीली मिटटी महक रही थी खुशबू में खोया था तनमन
गोरी बाँहों में गजरे थे कीचड़ सनी परात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
इकलौते चिराग की टिमटिम मौसम का रुख भांप रही थी
सर्द हवाओं के झोके से कभी-कभी लौ कांप रही थी
बुझती हुई शमा के घर परवानों की बारात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
वाह..बहुत सुन्दर रचना..
जवाब देंहटाएंकमेंट्स सेटिंग से वर्ड वेरिफिकेशन हटा दें ..टिप्पणी कराने में सरलता होगी .
कागज की नावों पर चढ़ कर चहक रहा था भोला बचपन
जवाब देंहटाएंखिलते फूलों की झोली में काँटों की सौगात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी...
बरसात की खूबसूरत यादें संग चल पड़ी ...!
बहुत सु्न्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता.
जवाब देंहटाएंउम्र के साथ वर्षा का असर भी बदल जाता है.
..बधाई.
दिल्ली में तो आज भी ऐसी बरसात नहीं है और अब ऐसी बरसातें नहीं होती हैं क्योंकि इंसान ने मौसम को कर दिया है गुस्सा।
जवाब देंहटाएंbahut sahi sundar rachna likhi hai aapne bahut pasand aayi shukriya
जवाब देंहटाएंमदन मोहन अरविंद जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
कल ऐसी बरसात नहीं थी … बहुत भावपूर्ण गीत है ।
बौछारों के बीच नहा कर निखर उठा था जैसे जीवन
कागज की नावों पर चढ़ कर चहक रहा था भोला बचपन
खिलते फूलों की झोली में कांटों की सौगात नहीं थी
कल ऐसी बरसात नहीं थी।
बहुत मन को छूने वाली रचना है ।
बधाई !
धन्यवाद !
स्वागत !
शस्वरं पर भी आपका हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं